अज्ञान की प्रगतिशील खोज है "शिक्षा"

TCN डेस्क। 

मानव को अधिक  परिपक्व, समझदार और प्रबुद्ध बनाने में शिक्षा की भूमिका हर युग में बेहद प्रभावी रही है। चाहे वह अनौपचारिक रूप से घर-बाहर, माता-पिता, दादी-नानी पड़ोसियों द्वारा सिखाए गए सबक हो या  वैदिक याचिक परम्परा से मकतब-मदरसे तक की औपचारिक शिक्षा पद्धतियां निस्संदेह शिक्षा का मानव व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 

इस तरह मानव विकास के अपने इस सतत क्रम में निरन्तर शिक्षा के महत्व को समझता गया और ज्ञान-विज्ञान के नए-नए क्षेत्रों का शोधों व अनुसंधानों के माध्यम से विकास करता गया। वैदिक व बौद्ध-जैन काल में हुई शैक्षिक प्रगति के इस क्रम का विकास मध्य काल में विदेशों के सांस्कृतिक सम्पर्क में होते हुए आधुनिक नवजागरण तक पहुँच गया।  

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अंग्रेजी में अनुवाद और भारतीय पाश्चात्य संस्कृति के सम्पर्क से ज्ञान के नए स्रोतों का विस्तार हुआ। आधुनिक शिक्षा के प्रसार साथ-साथ भारत में राजा राममोहन राय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर विवेकानंद, केशवचंद्र सेन आदि समाज-सुधारकों के द्वारा सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात की शुरुआत हुई। पूर्व और पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता- संस्कृति के सतत सम्पर्क के बाद धीरे-धीरे यह बात समझ में आने लगी कि ज्ञान का विस्तार अनंत है और ज्ञान-विज्ञान को किसी देश क्षेत्र या समुदाय विशेष को परिधि में नहीं बांधा जा सकता ।   

सुकरात ने इस मर्म को सदियों पहले समझते हुए कहा था, "मैं ज्ञानी इस अर्थ में हूं कि मैं यह जानता हूँ कि मैं कुछ नही जानता हूं"। इसका  सीधा-सा अभिप्राय है कि हम शिक्षा और ज्ञान के विकास के साथ जैसे-जैसे बौद्धिक चेतना के सोपान चढ़ते हैं, हमें निरन्तर अपनी अकिंचनता, लघुता और अल्पज्ञता का बोध होता जाता है। 

शायद इसीलिये गांधी ने आह्वान किया था कि हमें अपने खिड़की-दरवाजे आने वाली हवाओं के लिये खुले रखने चाहिये। यह अकारण नहीं था कि ऋग्वेद के युग के ऋषि चारों दिशाओं में शिक्षा और ज्ञान को आमंत्रित कर रहे थे। दरअसल शिक्षा अपने अज्ञान की एक प्रगतिशील खोज ही है। ज्यों-ज्यों हम ज्ञान के इस अथाह सागर में डुबकी लगाते हैं, इससे निकले अनुभ के मोती हमे इस बात का एहसास कराते हैं कि अभी बहुत कम जाना है और अभी  बहुत कुछ जानना बाकी है। मानव पर्याप्त अध्ययन के बाद अनुभव करता है कि अभी हम ज्ञान की कुछ बूंदे ही चख पाये है और पूरा सागर अभी बाकी है। 

कबीर ने अपने इस अनुभव को कुछ इस तरह व्यक्त किया था-        "पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय" राष्ट्रपिता  महात्मा गांधी  ने भी अपनी आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" में अनेक स्थानो पर अपनी अल्पज्ञता, भूलों और त्रुटियों की ओर संकेत किया है। अक्सर यह देखा गया है कि जिन भी महापुरुषों ने प्रज्ञा के उच्च स्तर को छुआ, उन्होंने अपने अज्ञान को उतना ही ईमानदारी से स्वीकार किया। 

सच ही कहा गया है कि- "बड़े बड़ाई ना करें, बड़े ना बोलें बोल, रहिमन हीरा कब कहै, लाख टको मेरो मोल।"

शिक्षा दरअसल हमें यह बोध कराती है कि हम कितने अज्ञानी है। हम समाज मे अपने आस-पास अक्सर कुछ ऐसे लोगो को देखते है जो थोड़ा बहुत अधकचरा ज्ञान जुटा कर शेखी बघारते हैं पाण्डित्य  प्रर्दशन करते घूमते हैं- "थोथा चना,बाजे घना।" पर जो सचमुच सुशिक्षित है,प्रबुद्ध और ज्ञानी लोग होते है, वे स्वंय को अज्ञानी, अकिंचन, अल्पज्ञ मानते हैं। ऐसा महज इसलिए नही होता है कि वे अपनी विनम्रता का प्रदर्शन करना चाहते है, बल्कि वह सच मे इस तथ्य का अनुभव कर पाते हैं कि शिक्षा अपने अज्ञान की प्रगतिशील खोज है। भरा हुआ घड़ा आवाज नही करता,इसी तरह सुशिक्षित व्यक्ति यह जानता है कि ज्ञान का विस्तार असीम है और ज्ञान व शिक्षा के विकास में अपनी अज्ञानता का भी बोध स्पष्ट होता जाता है।                                             
नोट - शिक्षा पर अपने यह विचार रखें हैं अंशुल सिंह ने। अंशुल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में क्रिमिनोलॉजी एंड फोरेंसिक साइंस के छात्र हैं। 

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