पीएचडी धारकों के लिए भविष्य की अपार संभावनाओं ने दी दस्तक, एक्सपर्ट व्यू

TCN डेस्क। 


अनुसंधान का मूल उद्देश्य ज्ञान के क्षेत्र में नवाचार को प्रोत्साहित करना होता है। देशभर में 30 से भी अधिक मान्यता प्राप्त केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अनगिनत शोध संस्थानों के माध्यम से शोध और अनुसंधान कार्यों को नित नई गति देने का कार्य व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार, हर साल देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हजारों की संख्या में शोधार्थियों की फौज तैयार होती है जो पीएचडी उपाधि प्राप्त कर अपने क्षेत्र में कुछ नवीनतम कर गुजरने की लालसा से ज्ञान और कौशल के कर्मक्षेत्र में उतरते हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के आंकड़ों के अनुसार देश में 48 केंद्रीय विवि, 392 राज्य विवि, 125 मानित विवि और 317 निजी विवि यानी कुल 882 छोटे-बड़े विश्वविद्यालयों की एक बड़ी संख्या शोध के महती कार्य में संलग्न है। वहीं यूजीसी की धारा 1956 की धारा तीन के अंतर्गत मानव संसाधन मंत्रालय के सौजन्य से 27 राज्यों के लगभग 21 मानित विवि और 30 केंद्रीय विवि को शोध के लिए सहयोग राशि भी दी जाती है। इससे इतर विज्ञान, मानविकी, मेडिकल साइंस और अभियांत्रिकी के क्षेत्र में शोधपरक शिक्षा हेतु कुल 13 स्कालरशिप या फेलोशिप प्रदान किए जाते हैं। इसमें डाक्टोरल और पोस्ट डाक्टोरल स्तर के डा. राधाकृष्ण पोस्ट डाक्टोरल फैलोशिप, राजीव गांधी नेशनल फैलोशिप फार एससी, एसटी और जूनियर रिसर्च फैलोशिप आदि प्रमुख हैं। कालेजों को भारी-भरकम राशि प्रदान करने का निहितार्थ इतना है कि नवीन कार्यविधियों व शोध प्रविधानों को विकसित कर समाज को नया उपादान दिया जा सके।
लेकिन चिंतनीय है कि तमाम उपक्रमों के बावजूद भारत में पीएचडी करने वालों की राह मुश्किल होती जा रही है। खास तौर से नौकरी से जुड़े अभ्यर्थियों के लिए यह पहले से कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया है। यूजीसी रेगुलेशन 2009 की व्यवस्थाओं में बदलाव करते हुए यूजीसी रेगुलेशन 2018 को देश के विभिन्न विवि में लागू कर दिया है। नियमों में सख्ती के चलते सरकारी और अर्धसरकारी संस्थानों में सेवा दे रहे अभ्यर्थियों के लिए पीएचडी करना मुश्किल हो गया है। विवि में शोध के दौरान 200 दिन और कोर्स वर्क के दौरान 75 प्रतिशत उपस्थिति को अनिवार्य बना देना भी छात्रों की राह में मुश्किलें पैदा कर रहा है।
वर्तमान नियम के लागू होने से पूर्व स्थितियां ऐसी नहीं थी। नौकरी के साथ डाक्टोरल डिग्री आसानी से प्राप्त कर ली जाती थी, परंतु अब नौकरीपेशा लोगों को विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य हो गया है। देश में एक ओर जहां शोध कार्यों को प्रोत्साहित करने, उत्कृष्ट संस्थान बनाने और संबंधित अवसंरचनात्मक आवश्यकताओं को तीव्र गति देने की बात सकारात्मकता का संचार करती है वहीं दूसरी ओर पीएचडी की मुश्किल होती राह चिंता पैदा करती है।
शोध कार्यों को लचीला बनाने और इस क्षेत्र में अभिनव प्रयोग ने अभ्यर्थियों के लिए आर्थिक सशक्तता के द्वार खोले हैं। अब उनकी उपयोगिता अकादमिक सेवाओं से कहीं ज्यादा रोजगार के दूसरे अन्य क्षेत्रों में बढ़ी है। औद्योगिक शोध व विकास पेशेवर और स्टार्ट-अप्स मेंटर्स के रुप में वे शोध गतिविधियों और नवीन उत्पादों की डिजाइनिंग का कार्य करने के साथ ही महत्वपूर्ण रणनीतिक बैठकों में शामिल हो रहें हैं, ताकि वे अपने ज्ञान आधारित कौशल का उपयोग कर सकें।
सबसे बढ़कर परंपरागत मानविकी विषयों से इतर नए क्षेत्रों यथा-कृत्रिम बुद्धिमत्ता, थ्री-डी तकनीक, डाटा एनालिसिस और मशीन लर्निंग, जीनोमिक स्टडीज, बायो-टेक्नोलाजी, नैनो टेक्नोलाजी, न्यूरोसाइंस आदि क्षेत्र में शोध के बढ़ते प्रयासो से करियर की नई संभावनाएं पैदा हुई हैं। इसे देखते हुए पीएचडी की चाह रखने वालों की संख्या में व्यापक वृद्धि हुई है। ऐसे में डाक्टरेट की राह को जटिल बनाना ठीक नहीं।
युवाओं को नवाचार और कौशलयुक्त ज्ञान देकर शोध डिग्री के साथ तकनीकी और व्यावसायिक कौशल से लैस करना होगा, ताकि उन्हें स्वावलंबन की दिशा में आगे बढ़ाया जा सके। सांध्यकालीन या आनलाइन कोर्स इत्यादि के माध्यम से इस जरूरत को पूरा करने के तरीकों पर विचार किया जा सकता है। इस पर भी विशेष ध्यान रखना होगा कि पीएचडी की रेवड़ियां केवल रोजगार पाने के लिए न बांटी जाएं। केवल उपाधि या स्कालरशिप प्राप्त कर लेने तक ही पीएचडी न सिमटे। शोध सहायक और छात्र भी इसमें गंभीरता दिखाएं। विश्वविद्यालयों में शिक्षक छात्र की हैसियत देखकर उन्हें अपने अंतर्गत शोध की अनुमति न दें, साथ ही विषय चयन और फीस जमा करने की आड़ में छात्रों से रकम उगाही का काम न करें।विश्वविद्यालयों में शिक्षक छात्र की हैसियत देखकर उन्हें अपने अंतर्गत शोध की अनुमति न दें, साथ ही विषय चयन और फीस जमा करने की आड़ में छात्रों से रकम उगाही का काम न करें। सवाल केवल इस तरह के शोधों के निष्कर्ष का ही नहीं, अपितु यहां से निकलने वाले छात्रों के व्यावहारिक और ज्ञानपरक ज्ञानाधार का भी है जिस कारण उनके द्वारा अर्जित रचनात्मक कौशल और बौद्धिक तथा व्यवाहरिक ज्ञान के अस्तित्व पर निरंतर प्रश्नचिन्ह लगता रहेगा।
भारत में शोध की स्थिति बेहतर बने और नौकरीपेशा अभ्यर्थी भी डाक्टरेट कर सकें, इसके लिए अंशकालिक डिग्री को भी रोजगारपरक संस्थानों द्वारा स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। कोर्स वर्क जैसी सख्तियों में भी ढील देनी चाहिए। शिक्षा के निरंतर विकास और उसे समाजोपयोगी बनाने के लिए जरूरी है कि छात्र और शिक्षक दोनों ही अनुसंधान के प्रति ईमानदार हों। शोध औपचारिकता के लिए नहीं, बल्कि नवीन सृजन के लिए है। यह महज जिज्ञासा की मूल प्रवृत्ति की संतुष्टि नहीं करता, बल्कि मानव ज्ञान को दिशा प्रदान कर ज्ञान भंडार को विकसित एवं परिमार्जित करता है। साथ ही ज्ञान के विविध पक्षों में गहनता और सूक्ष्मता लाता है।



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