बुन्देलखण्ड का स्वतंत्रता संग्राम में है विशेष योगदान



बुंदेलखंड में अतीत काल से ही आजादी की रक्षा करने वाले वीर योद्धाओं की शानदार परंपरा रही है। इस गौरवशाली परंपरा को वीरांगना झांसी लक्ष्मी बाई के फिरंगियों से आजादी की रक्षा के लिए अपने-अपने प्राणों का उत्सर्ग कर उसे और अधिक प्रज्जवलित और प्रखर बनाए रखा। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की कहानी भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के संग्राम का इतिहास है। यह ब्रिटिश सत्ता की गुलामी से मुक्ति पाने के लिये भारतीयों द्वारा संचालित आन्दोलन था। सन् 1857 ई. में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतीयों द्वारा पहली बार संगठित एवं हथियार बंद लड़ाई ने राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में संघर्ष, समझ एवं एकता के बीज बोये। यद्यपि यह विप्लव असफल रहा, परन्तु इसने प्राचीन और सामंतवादी परम्पराओं को तोड़ने में पर्याप्त सहायता पहुँचायी तथा इसके बाद ही भारत आधुनिक स्वतंत्रता संघर्ष आन्दोलन के नये युग में प्रवेश कर सका। देशव्यापी इस क्रांति का प्रभाव बुन्देलखण्ड की माटी पर भी पड़ा। बुन्देलों की इस वीर बसुन्धरा ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महती भूमिका अदा की है क्योंकि वर्तमान में बुन्देलखण्ड के नाम से प्रसिद्ध क्षेत्र का इतिहास अत्यन्त प्राचीन एवं गौरवशाली रहा है। यह भारत के हृदय प्रदेश के रूप में सुविख्यात अपनी स्वतंत्र चेतना के लिये महत्वपूर्ण माना जाता है। बुन्देलखण्ड को चेदि, मध्यप्रदेश, जैजाक-भुक्ति, आटविक, दशार्ण आदि प्राचीन नामों से भी संबोधित किया जाता है। इतिहासकार जयचंद विद्यालंकार ने विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी में विस्तृत क्षेत्र को बुन्देलखण्ड के नाम से सम्बोधित किया है। बुन्देलखण्ड का यह भूखण्ड अपनी अदम्य प्रेरणाओं और स्वतंत्र प्रवृत्तियों के लिये प्राचीन काल से ही विशिष्ट है। मध्यकाल में महाराज छत्रसाल बुन्देला ने इस क्षेत्र के सुयश को आगे बढ़ाया। जिससे इसे बुन्देलखण्ड नाम दिया। चंदेलों और बुंदेलों की संतानों का शौर्य सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में पराक्रम एवं स्वतंत्रता की कामना ज्वलंत रूप से सामने आयी जब झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब और तात्या टोपे के सुयोग्य नेतृत्व में अंग्रेजों से युद्ध करते हुये भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ा था। भारत में राष्ट्रीय चेतना पूर्णरूप से सन् 1857 ई. तथा सन् 1921 ई. की अवधि के दौरान पुष्पित हुई और परवर्ती कालीन स्वतंत्रता आन्दोलन जिसे हम राष्ट्रीय आन्दोलन की संज्ञा देते हैं जो सन् 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के साथ ही सुगठित रूप में सामने आया। जिसके नेतृत्व में भारतवासियों ने विदेशी शासन से स्वतंत्रता के लिये लम्बा और ऐतिहासिक संघर्ष किया। इस कालावधि के संघर्ष में बुन्देलखण्ड सक्रिय रूप से भाग ले रहा था। सन् 1905 ई. में बंग भंग के विरुद्ध आन्दोलन में बुन्देलखण्ड ने अपनी जुझारू प्रवृत्ति का परिचय दिया। सन् 1905 ई. से 1911-12 तक और सन् 1921 ई. से सन् 1930-31 ई. तक के आन्दोलनों में क्रान्तिकारी आन्दोलन के स्वर ही अधिक मुखर हुये। जिनमें से पहले में तो कम परन्तु द्वितीय चरण में चन्द्रशेखर आजाद और भगवानदास माहौर जैसे क्रांन्तिकारियों के नेतृत्व में बुन्देलखण्ड ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बुन्देलखण्ड की इस प्रकृति और प्रवृत्ति की धारा में सन् 1921 ई. के असहयोग आन्दोलन के आह्वान पर अनेक वीर युवक सामने आये। सन् 1928 ई. में साइमन कमीशन के विरोध में और सन् 1930 ई. के सत्याग्रह आन्दोलन में भारी संख्या में बुन्देलखण्ड के शिक्षित युवकों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ी। सन् 1931 ई. से सन् 1940 ई. के मध्य महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बुन्देलखण्ड ने आजादी की राजनीतिक लड़ाई में बड़े उत्साह से भाग लिया, जेल यात्रायें की और पुलिस का दमन सहा। सन् 1942 ई. में भारत छोड़ो आन्दोलन में बुन्देलखण्ड की साधारण जनता ने भी गाँधी जी के आह्वान पर शासन से अहसयोग किया। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के महान नेताओं को उनके त्याग एवं बलिदान के लिये आज भी हम याद करते हैं किन्तु वे स्थानीय और आंचलिक नेता, जो स्वतंत्रता आन्दोलन की भागीदारी में राष्ट्रीय नेताओं के सहयोगी रहे एवं उनसे किसी भी स्तर पर पीछे नहीं रहे, उनके योगदान का आज तक कोई उचित मूल्यांकन करने का प्रयास नहीं किया गया है। जब हम बुन्देलखण्ड के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि अपने अनूठे शौर्य और स्वातन्त्रय प्रेम के कारण विदेशियों के विरुद्ध या राष्ट्रीय आन्दोलन में बुन्देलखण्ड सदैव से ही अग्रणी रहा है। स्वतंत्रता आन्दोलन के उन अगणित शूरवीरों को समय के अन्धकार के गर्त से निकालकर प्रकाश में लाना आज की महती आवश्यकता है।
- नितिन कुमार जैसवाल
( बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय)

नोट - यह लेखक के निजी विचार हैं

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