मानवता को शर्मसार करती दिल्ली

TCN डेस्क। 
लेखक : डॉ. उमेश कुमार, सहायक आचार्य, भास्कर जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, 
बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी (उत्तर प्रदेश)
दिल्ली भारत की राजधानी है और यहाँ पर घटित होने वाली किसी भी घटना का प्रभाव पूरे देश में पड़ता है. हाल ही में एक 16 वर्षीय लड़की की जिस बेरहमी से हत्या हुई और लोग उसे आते जाते देखते रहे, यह समाज कई सवाल खड़े कर रहा है. सवाल यह है कि क्या कानून की मदद से इस प्रकार की घटनाओं को रोका जा सकता है? क्या लोगों की अपने परिवार, समाज और लोगों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या मानवीय संवेदना और भावना इस कदर ख़त्म हो चुकी है कि जब तक स्वयं पर कुछ नहीं बीतेगा, वह सोती रहेगी. यह सवाल आज हमारे देश के हर नागरिक को स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या उनकी बहन या बेटी घर से बाहर जाए तो उसकी किसी मुसीबत के समय में सुरक्षा दुसरे लोग करें और वह खुद भी दूसरों की बहन-बेटी की सुरक्षा करेंगे या हाथ पर हाथ रखे हुए तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे और अपनी बारी का इंतजार करते रहेंगे. 
दिल्ली में हुई घटना को रोकने के लिए कानून से ज्यादा जरुरी है कि लोगों में मानवता और संवेदना हो. कानून अपना काम बाद में करता है लेकिन किसी के मौत के बाद कानून उसे जिन्दगी नहीं दे सकती है. लोगों का प्रयास शायद उस लड़की को मरने से रोक सकती है. महिला सशक्तिकरण जैसे शब्द केवल सरकार के भरोसे पर अगर छोड़ दिया जाएगा तो उसका कोई भी फायदा नहीं हो सकता है. यहाँ केवल महिला की बात नहीं करके किसी भी लिंग के लिए कहा जा सकता है कि मानवता के बिना समाज को सही राह नहीं दिखाई जा सकती है. दिल्ली में घटित हुई इस घटना में कानून अपना काम करेगा, लेकिन उससे पहले जो सवाल हमारे समाज और सोच पर खड़े हुए हैं, उन पर विचार किया जाना आवश्यक है. 
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने इसके लिए उप राज्यपाल को ट्विटर के द्वारा निशाना साधा है कि कानून व्यवस्था उप राज्यपाल का काम है? यह सही भी मान लिया जाए तो क्या किसी राज्य में यह संभव है कि हर नागरिक के पीछे एक पुलिस को लगाया जा सकता है. शायद यह किसी भी समय में संभव नहीं हुआ है और भविष्य में कभी संभव भी नहीं होगा. सुरक्षा देना सरकार का काम है लेकिन नागरिक जिम्मेदारी से भी इंकार नहीं किया जा सकता है. दिल्ली की घटना सरकार की नाकामयाबी के साथ ही साथ लोगों की स्थिति को बयाँ कर रही है. 
दिल्ली की साक्षी की बेरहम मौत कानून के साथ साथ ही साथ वहां खड़े लोगों पर सवाल खड़ा कर रहा है. 17 लोगों के सामने जिसमें महिला, बच्चे, युवा सभी आयु वर्ग और लिंग के व्यक्ति थे, लेकिन किसी ने भी इसे रोका नहीं.  17 लोग एक व्यक्ति को रोक नहीं सकते हैं तो सरकार या कोई भी कानून इस तरह की घटनाओं को रोकने में सक्षम नहीं हो सकती है. 
हाँ, यह भी संभव हो सकता है कि साक्षी को रोकने के लिए जो लोग आगे आते बाद में उन्हें भी प्रताड़ित किया जाता लेकिन सामूहिकता के द्वारा इस प्रकार की घटना को रोका जा सकता है. आने वाले भविष्य की आशंका के आधार पर किसी को अपने सामने बेरहमी से मारते हुए और किसी को मरते हुए देखना, बहुत ही चिंतनीय है. यहाँ कौन ऐसा नहीं है जिसकी बहन या बेटी किसी और शहर में या घर से बाहर पढ़ने लिखने के लिए नहीं निकलती है. क्या हम यही सोचते हैं कि मेरी बहन या बेटी को कोई बचाने आ जाएगा लेकिन मैं खुद ऐसा कुछ भी नहीं करूँगा. 
अभी हाल के वर्षों में झाँसी जनपद में लोगों को जागरूक करने के लिए महिला प्रताड़ना पर एक नुक्कड़ नाटक का मंचन शहर के कई जगहों पर किया गया था जिसमें बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थियों ने विवाह पश्चात् महिलाओं को प्रताड़ित करने को पटकथा बनाया था. नाटक के मंचन को इतना प्राकृतिक रूप से किया गया था कि लोगों को यह नहीं लगे कि यह नाटक है यह वास्तविक घटना है. नाटक के मंचन के समय देखा गया कि प्रायः लोग महिला को उसके पति के द्वारा पिटते हुए देखते रहे और वहां से आते-जाते रहे. यह स्वाभाव यह बताने के लिए बहुत है कि मानवीयता ख़त्म हो गयी है और यह तभी जागृत होती है जब बात स्वयं पर आती है. 
अगर हम अपने, अपने लोगों और समाज के लिए एक अच्छा वातावरण बनाना चाहते हैं तो हमें आज विचार करना होगा कि अपनी सुरक्षा के साथ ही साथ दूसरों को भी सुरक्षा का अहसास कराएँ. अपराध को सहना ही नहीं, अपराध को होते हुए देखना और मूकदर्शक बने रहना भी अपराध की श्रेणी में ही आना चाहिए. हमारी सामाजिक जिम्मेदारी को हमें स्वयं निभाना होगा तभी समाज का हर व्यक्ति सुरक्षित महसूस करेगा. एक बार विचार जरुर करें. 
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