इन “धर्मो“ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है

भगत सिंह जयन्ती (28 सितम्बर) पर विशेष

 डाॅ. मुहम्मद नईम, महासचिव इप्टा/प्रलेस, झाँसी
शहीद-ए-आजम भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन के ऐसे नायक हैं, जिन्हें प्रत्येक वय की पीढी अत्यन्त शिद्दत से याद करती है। 28 सितम्बर 1907 को सरदार किशन सिंह के घर जन्मा बालक 23 मार्च 1931 को भारत भारती को आजादी का आंचल ओढाने में शहीद होता है। बचपन से ही खेतों में अन्न की जगह बन्दूक उगाने का सपना देखने वाला भगत पूरे देश का नायक बनकर उभरता है, जिससे तत्कालीन नेतृत्व को भी खतरा महसूस होता है। नौजवानों के दिलों में आजादी का जुनून भरने वाले शहीद-ए-आजम के रूप में विख्यात भगत सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में इतिहास के पन्नों में अमर है। उनके नाम से ही अंग्रेजों के पैरों तले जमीन खिसक जाती थी। 28 सितम्बर 2019 को उनके जयन्ती के 112 वर्ष में उनके विचार और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं, जब देश साम्प्रदायिक शक्तियों, दरकते सांझा रिश्तों, गरीबी, भुखमरी, आत्महत्या जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।

अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग के निर्मम हत्याकांड ने 12 साल के उस बच्चे को ऐसा क्रांतिकारी बनाया, जिसके बलिदान ने मौत को भी अमर बना दिया। जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक बँटवारें की राजनीति तेज कर दी। इसके असर से वर्ष 1924 में कोहाट में भयानक हिन्दू- मुस्लिम दंगे हुए। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगो पर लम्बी बहस चली। इन्हें समाप्त करने की जरूरत तो सबने महसूस की, लेकिन कांग्रेसी नेताओ ने हिन्दू-मुस्लिम नेताओ में सुलहनामा लिखाकर दंगो को रोकने के यत्न किये। इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। भगतसिंह का यह लेख जून, 1928 के “किरती“ में छपा- 
‘‘भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है । एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कटट्र शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिक्खों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिक्खांे ने भी वश चलते कोई कसर नही छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नही की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमान द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है। ऐसी स्थिति में, हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन “धर्मो“ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है और अभी पता नही कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेगे। इन दंगो ने संसार की नजरो में भारत को बदनाम कर दिया है और हमने देखा कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते है। कोई विरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिक्ख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सबके सब धर्म के ये नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे-लाठियाँ, तलवारें- छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर फोड़-फोड़ कर मर जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन “धर्मजनों“ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने पर आ जाता है। जहाँ तक देखा गया है, इन दंगो के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओ ने ऐसी लीद की है, कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंनें भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा उठाया हुआ था और जो “समान राष्ट्रीयता“ और “स्वराज-स्वराज“ के दमगजे मारते नही थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठनेवालो की संख्या भी क्या कम है, और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नही पा रहे। ऐसा लग रहा कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है। दूसरे सज्जन, जो साम्प्रदायिक दंगो को भड़काने में हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबारवाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गन्दा हो गया है। ये लोग एक-दूसरे के विरूद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएॅ भड़काते है और परस्पर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नही, कितनी ही जगहो पर इसलिए दंगे हुए है कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हंै। ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनो में भी शान्त रहा हो, बहुत कम है। अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाऐं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साक्षी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखो से रक्त के आँसू बहने लगते है।
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते है, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्रता की झलक सामने दिखायी देती थी और आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगो से अत्याचारियों को मिला है। वही नौकरशाही जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी, आज अपनी जड़े इतनी मजबूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नही हैै।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगो की जड़ खोजंे तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनो में नेताओ व पत्रकारो ने ढेरो कुर्बानियाँ दी। उनकी आर्थिक दिशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताआंे पर अविश्वास-सा  हो गया, जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओ के धन्धे चैपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल माक्र्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी कारण से तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है। 
बस सभी दंगो का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार सें ही हो सकता है, क्यांेकि भारत के आम लोगो की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। 
लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि सरकार विदेशी है और यह लोगो की स्थिति को सुधरने नही देती। इसलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए। लोगो को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग- चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति है, इसलिए तुम्हे इनके हथकण्डो से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबो के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग धर्म या राष्ट्र के हों अधिकार एक ही है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजूट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नही होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरे कट जायेंगी और तुम्हे आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी। जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हे मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थी, वहाँ भी कितने ही समुदाय थे, जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ का नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नही हुए। अब वहाँ सभी को “इन्सान“ समझा जाता है, “धर्मजन“ नहीं। जार के समय लोगांे की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है, इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नही आयी। इन दंगो में वैसे जो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते है, लेकिन कलकत्ते के दंगो में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ के दंगो में ट्रेड यूनियनों के मजदूरांे ने हिस्सा नही लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिन्दू-मूसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचान पाते थे। वर्ग-चेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से, जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं और उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगो को धर्म की नजर से हिन्दू, मुसलमान या सिख-रूप में नही, वरन सभी को पहले इन्सान समझते है, फिर भारतवासी। भारत के युवको में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है और भारतवासियों को इन दंगो आदि को देखकर घबराना नही चाहिए, बल्कि तैयार-बर-तैयार हो यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने ताकि दंगे हो ही नहीं। 
1914-1915 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्तिगत मामला है, इससे दूसरे को कोई दखल नही। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सर्वत्र को मिलकर एक जगह काम नही करने देता। इसीलिए गदर पार्टी- जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, इसमें सिक्ख बढ़-चढ़ कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू- मुसलमान भी पीछे नही रहे। इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हंै, जो धर्म की राजनीति से अलग करना चाहते है। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज और हम इसका समर्थन करते है। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकटठे हो सकते हैं। धर्मो में हम चाहे अलग-अलग ही रहे। हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हम बचा लेगे।
इस समय हम नौजवानों से यह नही कह सकते कि बम और पिस्तौल उठाये। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्वपूर्ण काम है। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की अजादी के लिए जबरदस्त लड़ाई की उद्घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतन्त्रता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियो ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी मंे वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचायेगे ?
नौजवानों को क्रान्ति का यह संदेश है कि इसे देश के कोने-कोने पहँुचाना है, फैक्ट्री-कारखाने के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपडियों में रहने वाले करोडों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।
इन्कलाब जिन्दाबाद का अर्थः
हम “यतीन्दªनाथ जिन्दाबाद“ का नारा लगाते है। इससे हमारा अभिप्राय यह होता है कि उनके जीवन के महान आदर्शो तथा उस अथक उत्साह को सदा-सदा के लिए बनाये रखे, जिसने इस महानतम बलिदानी को उस आदर्श के लिए अकथनीय कष्ट झेलने एवं असीम बलिदान करने की प्रेरणा दी। यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है कि हम भी अपने आदर्शो के लिए ऐसे अचूक उत्साह को अपनाये और यही वह भावना है जिसकी हम प्रशंसा करते है। इसी प्रकार हमंे “इन्कलाब“ शब्द का अर्थ भी कोरे शब्दिक रूप में नही लगाना चाहिए। 
क्रान्ति शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकंाक्षा है लोग साधारणतः जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते है और परिवर्तन के विचार मात्र से भी काँपने लगते हैं। यही वह अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रान्तिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दो में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित करने की ओर रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज को गलत रास्ते पर ले जाती है। ये परिस्थतियाँ मानव समाज की उन्नति के प्रतिरोध का कारण बन जाती है। क्रान्ति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थायी तौर पर ओत-प्रोत रहनी चाहिए, जिसे कि रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने को संगठित न हो सके। यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव बदलती रहे और वह नई व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि यह आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है, हमारा वह अभिप्राय, जिसको हृदय में रख कर हम इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा ऊँचा करते है।
प्यार हमें शक्ति देता हैः
ज्हाँ तक प्यार के नैतिक स्तर का सम्बन्ध है, मैं यह कह सकता हूँ कि यह अपने में कुछ नही है, सिवाए एक आवेग के, लेकिन पाशविक वृत्ति नहीं, एक मानवीय अत्यन्त सुन्दर भावना। प्यार अपने में कभी भी पाशविक वृत्ति नहीं है। प्यार तो हमेशा मनुष्य के चरित्र को ़ऊँचा उठाता है, यह कभी भी उसे नीचा नहीं करता। बशर्ते प्यार, प्यार हो। तुम कभी भी इन लड़कियों को वैसी पागल नही कह सकते जैसे कि फिल्मों में हम प्रेमियों को देखते हैं। वे सदा पाशविक वृत्तियों के हाथों मे खेलती हैं। सच्चा प्यार कभी भी गढ़ा नही जा सकता है। यह तो अपने ही मार्ग से आता है। कोई नही कह सकता कब? लेकिन यह प्राकृतिक है। हाँ मैं यह कह सकता हँू कि एक युवक और एक युवती आपस मे प्यार कर सकते हैं और अपने प्यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं। अपनी पवित्रता बनाये रख सकते हैं। प्यार एक अत्यंत आदर्श स्थिति है, जहाँ मनुष्य प्यार, घृणा आदि के आवेगो पर विजय पा लेगा। जब मनुष्य अपने कार्यो का आधार आत्मा के निर्देश को बना लेगा, लेकिन आधुनिक समय में यह कोई बुराई नही है। बल्कि मनुष्य के लिए अच्छा और लाभदायक है। मैंने एक व्यक्ति के एक व्यक्ति से प्यार की निंदा की है, लेकिन वह भी एक आदर्श स्तर पर इसके होते हुए भी मनुष्य में गहरी से गहरी भावना होनी चाहिए, जिसे कि वह एक ही आदमी में सीमित न कर दे बल्कि विश्वमय रखे।
(सम्प्रति- सहायक आचार्य, समाज कार्य विभाग, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी (उ. प्र.))

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