"उम्मीद जो एक मीठा सपना है ,जो कभी शायद ही सच हो लेकिन हकीकत ,जिसे शायद ही कोई नकार सके ।
हम जो उम्मीद करते है भले ही वो पूरी हो या ना हो हो लेकिन जो हकीकत सामने आती है वो वो जरूर हमारे मन को उद्वेलित करती है ।"
और यही उम्मीद जो हम अपने देश भारत (भारतवासी) से लगाए बैठे थे वो कहीं ना कहीं एक झूठा सपना ही मात्र था कयुकी हकीकत कुछ और ही सामने आयी ।
हम उममीद करते है लोगो से , समाज से की एक अच्छे राष्ट्र का निर्माण हो एक अच्छे समाज का उदय हो लेकिन हम भूल जाते है की शुरुआत तो हमें भी करनी चाहिए ।
हमने ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी जो सहयोगवादी हो , राष्ट्रीयता की भावना हो हमारे समाज की बेटियां निडर हो लेकिन हमारे राष्ट्र की हकीकत कहीं ना कहीं इसके विपरीत है ।
हम सोचते है कि हमारी जॉब लग गई शादी हो गई पैसा भी है अब हमारा बन गया हमें क्या !लेकिन जिस समाज हमारी आने वाली पीढ़ी रहेगी इस समाज को सुधारने का दायित्व किसने लिया ।???लेकिन हम केवल अपने आप तक ही सीमित है ।हमारे देश के क्रांतिारियों ने महापुरुषों ने इस देश की आजादी और संस्कृति को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दिया लेकिन हम अपना बलिदान देने की तो दूर की बात हम उनके उपदेशों तक का पालन नहीं कर पाते ।
हम देखते है आए दिन हर जगह दंगे फसाद हो रहे है हर जगह मारपीट हो रही है कहीं भी शांति और ईमानदारी देखने को नहीं मिलती ।हम अपने अंदर के प्रेम को खत्म करते जा रहे है केवल लोगो से अपना उल्लू सीधा करवाने की सोचते रहते है ।हमारी संस्कृति पूरी तरह से धीरे धीरे खत्म होती जा रही है
"कोई व्यक्ति पवित्र है कोई ईमानदार है तो केवल मौके के अभाव में।"
किसी जानवर जो देखकर दया नहीं किसी भिखारी को देखकर सहयोग नहीं तो शायद हम एक अच्छे इंसान नहीं !।लेकिन हमने ऐसे राष्ट्र की कल्पना नहीं की थी जो ऐसी कड़वी हकीकत के रूप में सामने आया
समाज में जाति के नाम पर दंगे हो रहे है ,कोई भी जाति बुरी नहीं है लेकिन हमारे मन में जाति के नाम पर इतनी बड़ी दीवाल खड़ी है कि हम एक दूसरे को दुश्मन की दृष्टि से देखते हैं।
ऐसे भी समाज की हमने कल्पना नहीं की थी जहां आदमी आदमी की जान लेने के लिए उतारू हो जाए जहां आदमी को आदमी से डर है।हमारी संस्कृति आपसी दुराभावो में खोती चली जा रही है ,आज की सोशल मीडिया में खोती चली जा रही है ।
हमारी सोच इतनी सीमित हो चुकी है कि हम केवल अपने आप की ही सोचते है दूसरों के बारे में सोचने की फुर्सत ही कहां ,सबको पैसों की होड़ लगी है जीवन भर निकाल दिया पैसा कमाने में अपनी संतान के लिए और अंत में क्या मिलता है कि हमारी संतान ही हमारा सम्मान नहीं करती। 'अरे पूत सपूत होई तो धन काहे को संचय और पूत कपूत होई तो धन काहे को संचय"।
लेकिन हमे पैसों की होड़ लगी है , जिस पर्यावरण की वजह से आज हम जिंदा है उसकी किसी को भी खबर नहीं।
हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक पेड़ पौधे ही काम आते है लेकिन बहुत ही कम महानुभाव है जो पेड़ पौधे लगाते है।।
सच्चाई यही है कि बहुत स्वार्थी हो गए है हम ।
शायद ऐसे राष्ट्र की कल्पना नहीं की थी जहां संस्कृति खत्म होती जा रही है ,लोगो के हृदय मरते जा रहे है लोग दिमाग़ से काम ले रहे है - जहां स्वार्थ नहीं वह कर्म नहीं।
यही है समाज ही और हमारे राष्ट्र की हकीकत ।जो हमने उम्मीद कि थी हकीकत ठीक उसके विपरीत देखने को मिलती है ।प्रेम से खाली हृदय और असहयोग की भावना।
याद रखे हम केवल तब तक जिंदा होते है जब तक हम अपने राष्ट्र के काम आ सके उसके लिए कुछ कर सके ,वरना अपना खाना पीना, अपने है बारे में सोचना स्वार्थी बनना ऐसे तो जानवर भी रह लेता है ।
"हकीकत में बदलो और उम्मीदों के पार चलो।
सभी साथ में मिलकर देश में कुछ भव्य बदलाव कर चलो"।।
हम साथ में चलेंगे तभी एक भव्य भारत का निर्माण होगा। हमारा भारत हमारी उम्मीदों पर खरा उतरेगा।।
"हमें बदलाव करना होगा , हमें खुद ही बदलना होगा हमेंही शुरुआत करनी होगी पहले हमें ही अपनी सोच अच्छी करनी होगी , हमें ही अपना वातावरण अच्छा करना होगा । क्यूकी अब समाज को एक अच्छे बदलाव की जरूरत है और अभी बदल भी सकता है हमें अपने ह्रदय में प्रेम भरना होगा हमें लोगो के प्रति सहयोग और जानवरो के प्रति दया रखनी होगी ,और ऐसे ही बदलाव हमें एक अच्छा इंसान बना सकते है ,एक अच्छे राष्ट्र की नींव रख सकते है और तब हमारा राष्ट्र हमारी उम्मीदों के मुताबिक होगा ,"एक सभ्य और भव्य राष्ट्र भारत"।
- सौरभ सिंह
(दयानंद वैदीक कॉलेज,उरई)
नोट - यह लेखक के निजी विचार हैं
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